"म्लेच्छ" शब्द का प्रयोग वैदिक काल से उन जातियों के लिए किया जाता था जो वेद-धर्म, आर्य संस्कृति, और सनातन मूल्यों को नहीं मानते थे। इनका उल्लेख महाभारत और पुराणों में बार-बार हुआ है। परंतु समय के साथ यह शब्द उन आक्रांता जातियों के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होने लगा जो मध्य एशिया, अरब, और यूरोप से भारत और अन्य समृद्ध सभ्यताओं पर टूट पड़े।
🔥 म्लेच्छों की उत्पत्ति और पहला उदय :
- 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व (6th Century BCE): म्लेच्छों की जड़ें मध्य एशिया के बर्बर कबीलाई समाजों से जुड़ी थीं, जो मूलतः खानाबदोश थे। इनका मुख्य केंद्र था आधुनिक-day मंगोलिया, कज़ाकिस्तान और उज़्बेकिस्तान क्षेत्र।
- प्रारंभिक काल में ये जनजातियाँ खेती, विज्ञान या संस्कृति में नहीं बल्कि लूट-पाट और हिंसा में विश्वास करती थीं।
- ⚔️ दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं पर पहला आक्रमण.
- 334 ईसा पूर्व: सिकंदर (Alexander) जैसे म्लेच्छ आक्रमणकारी ने पर्शियन और भारतीय सीमाओं तक आक्रमण किया.
- 7वीं शताब्दी (600s AD): अरब म्लेच्छों ने इस्लामी विस्तार के नाम पर बाइजेंटाइन और फारसी सभ्यताओं का विध्वंस शुरू किया.
- 712 AD: मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला कर भारत में म्लेच्छ आक्रमणों की शुरुआत की।
🔴 सभ्यताओं का विध्वंस और लूट का काल :
- 12वीं से 16वीं शताब्दी: म्लेच्छ आक्रांता जैसे महमूद ग़ज़नवी (1000-1027 AD), मोहम्मद ग़ोरी (1191-1192 AD), तैमूर लंग (1398 AD), और बाबर (1526 AD) ने भारत की समृद्ध मंदिरों, गुरुकुलों और नगरों को तहस-नहस किया।
- केवल लूट ही नहीं, इन आक्रमणों में लाखों निर्दोष लोगों का कत्लेआम हुआ।
- नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविख्यात ज्ञान केंद्रों को जलाकर खाक कर दिया गया।
🧠 म्लेच्छों का 'योगदान' : उनके 'योगदान' की चर्चा केवल नकारात्मक अर्थों में की जा सकती है:
- ज्ञान का दमन
- स्त्रियों पर अत्याचार
- धर्मांतरण की नीति
- कला, साहित्य, और वास्तुकला को लूटना या नष्ट करना
🙏 सनातन संस्कृति की विजय गाथा :
- म्लेच्छों की नृशंसता के बावजूद भारतवर्ष की सनातन आत्मा को वे मिटा नहीं पाए। श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, आचार्य शंकर, गुरु गोविंद सिंह जैसे महान आत्माओं ने इस भूमि की आत्मा को जिंदा रखा।
📜 निष्कर्ष :
- "म्लेच्छ" कोई केवल जातीय शब्द नहीं है — यह एक चेतावनी है कि जब सभ्यता, संस्कृति और धर्म से विमुख होकर सत्ता और हिंसा को पूजा जाता है, तब मानवता पर संकट आता है। आज भी ये विचारधाराएं नई शक्लों में जीवित हैं — हमें पहचानना होगा, जागरूक रहना होगा।
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