तुम सलामत रहो हजार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हजार
गालिब बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा जिसे कहे
कहते हैं कि जीते हैं उम्मीद पे लोग
हम को तो जीने की भी उम्मीद नहीं
इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
आगे आती थी हाल - ए - दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है
इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतश गालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
गालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर,
या वो जगह बता जहां खुदा नहीं
posted from Bloggeroid
0 Comments