कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए - दुष्यंत कुमार


कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए
जले जो रेत में तलवे तो हम ने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छट-पटा के बैठ गए
खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए
ये सोच कर कि दरख़्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साए में के बैठ गए

दुष्यंत कुमार




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