ओ कल्प-वृक्ष की सोन-जूही, ओ अमलतास की अमर कली,
धरती के आताप से जलते मन पर छायी निर्मल बदली,
मैं तुमको मधु-सद-गंध युक्त, संसार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
तुम कल्प-वृक्ष का फूल और मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य, मैं नहीं अधूरी ग़ज़ल शुभे,
तुम साम गान सी पावन हो,
हिमशिखरों पर शेष कुण्ड, बिजुरी सी तुम मन भावन हो.
इसलिए व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउँगा
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
तुम जिस शैया पर शयन करो, वह शेयर सिंध सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौल-श्री, वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ, वह आधार नहीं गंगा तट हो
जिसकी छैया बन साथ रहो, वह व्यक्ति नहीं वंशी-वट हो
पर मैं वट जैसा सघन छाओं, विस्तार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
मैं तुमको चाँद सितारों का सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साधू सुर-संसार भला कैसे,
मैं जीवन के प्रश्नो से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे,
बारूदी बिछी धरती पर कर लून दो पल प्यार भला कैसे
इसलिए विवश हर आंसों को सत्कार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
- डॉ. कुमार विश्वास
1 Comments
Very nics poem by kumar vishwas
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