‘मेरे लहज़े में जी-हुज़ूर न था
इससे ज़्यादा मेरा कसूर न था ‘
प्रतिमाओं में पूजा उलझी
विधियों में उलझा भक्ति योग
सच्चे मन से षड्यंत्र रचे
झूठे मन से सच के प्रयोग
जो प्रश्नों से ढह जाए वो
किरदार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया
तुम निकले थे लेने स्वराज
सूरज की सुर्ख़ गवाही में
पर आज स्वयं टिमाटिमा रहे
जुगनू की नौकरशाही में
सब साथ लड़े, सब उत्सुक थे
तुमको आसन तक लाने में
कुछ सफल हुए निर्वीय तुम्हें
यह राजनीति समझाने में !
इन आत्मप्रवंचित बौनों का
दरबार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया
हम शब्द-वंश के हरकारे
सच कहना अपनी परम्परा
हम उस कबीर की पीढ़ी
जो बाबर-अकबर से नहीं डरा
पूजा का दीप नहीं डरता
इन षड्यंत्री आभाओं से
वाणी का मोल नहीं चुकता
अनुदानित राज्य सभाओं से.
जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?
डॉ. कुमार विश्वास
0 Comments