शौक़ सारे छिन गये, दीवानगी जाती रही

शौक़ सारे छिन गये, दीवानगी जाती रही
आयीं ज़िम्मेदारियाँ, तो आशिकी जाती रही

मांगते थे ये दुआ, हासिल हो हमको दौलतें
और जब आयी अमीरी, शायरी जाती रही

मय किताब-ए-पाक़ मेरी, और साक़ी है ख़ुदा
महफिलों से भर गया दिल, मयकशी जाती रही

रौशनी थी जब मुकम्मल, बंद थीं ऑंखें मेरी
खुल गयी आँखें मगर फिर रौशनी जाती रही

ये मुनाफ़ा, ये ख़सारा, ये मिला, वो खो गया
इस फेर निनयानबे के में ज़िन्दगी जाती रही

सिर्फ़ दस से पांच तक, सिमटी हमारी ज़िन्दगी
दफ़्तरी आती रही, आवारगी जाती रही

मुस्कुरा कर वो सितमग़र, फिर से हमको छल गया
भर गया हर ज़ख्म तो नाराज़गी जाती रही

उम्र बढ़ती जा रही है तुम बड़े होते नहीं
ऐसे तानों से हमारी, मसख़री जाती रह


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